लिप्यंतरण:( Huwal lazeee anzala 'alaikal Kitaaba minhu Aayaatum Muh kamaatun hunna Ummul Kitaabi wa ukharu Mutashaabihaatun fa'ammal lazeena fee quloobihim zaiyghun fa yattabi'oona ma tashaabaha minhubtighaaa 'alfitnati wabtighaaa'a taaweelih; wa maa ya'lamu taaweelahooo illal laah; warraasikhoona fil 'ilmi yaqooloona aamannaa bihee kullum min 'indi Rabbinaa; wa maa yazzakkaru illaaa ulul albaab )
2. आयत का भावार्थ यह है कि अल्लाह ने मानव का रूप आकार बनाने और उसकी आर्थिक आवश्यकता की व्यवस्था करने के समान, उसकी आत्मिक आवश्यकता के लिए क़ुरआन उतारा है, जो अल्लाह की प्रकाशना तथा मार्गदर्शन और फ़ुरक़ान है। जिसके द्वारा सत्यासत्य में अंतर करके सत्य को स्वीकार करे। 3. मोह़कम (सुदृढ़) से अभिप्राय वे आयतें हैं, जिनके अर्थ स्थिर, खुले हुए हैं। जैसे एकेश्वरवाद, रिसालत तथा आदेशों और निषेधों एवं ह़लाल (वैध) और ह़राम (अवैध) से संबंधित आयतें, यही पुस्तक का मूल आधार हैं। 4. मुतशाबेह (संदिग्ध) से अभिप्राय वह आयतें हैं, जिनमें उन तथ्यों की ओर संकेत किया गया है, जो हमारी ज्ञानेंद्रियों में नहीं आ सकते, जैसे मौत के पश्चात् जीवन, तथा परलोक की बातें। इन आयतों के विषय में अल्लाह ने हमें जो जानकारी दी है, हम उनपर विश्वास करते हैं, क्योंकि इनका विस्तार विवरण हमारी बुद्धि से बाहर है, परंतु जिनके दिलों में खोट है वह इनकी वास्तविकता जानने के पीछे पड़ जाते हैं, जो उनकी शक्ति से बाहर है।
The tafsir of Surah Imran verse 7 by Ibn Kathir is unavailable here.
Please refer to Surah Imran ayat 5 which provides the complete commentary from verse 5 through 9.
सूरा आल-ए-इमरान आयत 7 तफ़सीर (टिप्पणी)