लिप्यंतरण:( Zaalikum bi annakumut takhaztum aayaatil laahi huzuwanw wa gharratkumul hayaatud dunyaa; fal yawma laa yukhrajoona minhaa wa laahum yusta'taboon )
11. अर्थात अल्लाह की निशानियों तथा आदेशों का उपहास तथा दुनिया के धोखे में लिप्त रहना। ये दो अपराध ऐसे हैं जिन्होंने तुम्हें नरक की यातना का पात्र बना दिया। अब उससे निकलने की संभावना नहीं तथा न इस बात की आशा है कि किसी प्रकार तुम्हें तौबा तथा क्षमा याचना का अवसर प्रदान कर दिया जाए और तुम क्षमा माँग कर अल्लाह को मना लो।
The tafsir of Surah Jathiya verse 35 by Ibn Kathir is unavailable here.
Please refer to Surah Jathiya ayat 30 which provides the complete commentary from verse 30 through 37.
सूरा अल-जासिया आयत 35 तफ़सीर (टिप्पणी)